इन हमलों के लिए अमरीका ने अल क़ायदा को ज़िम्मेदार बताया और तालिबान से कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद ओसामा बिन लादेन को सौंप दे. जब तालिबान ने इनकार किया तो अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने अफगानिस्तान पर हमले का ऐलान कर दिया.
अमरीका, उसके अंतरराष्ट्रीय और अफग़ान सहयोगियों के हमलों को तालिबान सह नहीं पाया और दो महीने के अंदर ही उसे सत्ता से हटना पड़ा. इसके बाद अफ़ग़ानिस्तान की सुरक्षा का ज़िम्मा नेटो सेनाओं ने संभाल लिया.
2004 में अफ़गानिस्तान में नया संविधान बना और फिर अंतरिम राष्ट्रपति रहे हामिद करज़ई चुनाव के बाद फिर राष्ट्रपति चुने गए. लेकिन इस बीच तालिबान और अमरीका की सहयोगी सेनाओं के बीच जंग चलती रही.
10 साल तक धमाकों, हमलों, एयरस्ट्राइक का सिलसिला जारी रहा. आख़िरकार, साल 2014 में नैटो ने औपचारिक रूप से अफ़ग़ानिस्तान में अपने अभियान का अंत किया और सुरक्षा की ज़िम्मेदारी अफ़ग़ान बलों के हवाले कर दी.
अमरीका का कहना था कि अब अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद उसकी और सहयोगी देशों की सेनाओं की भूमिका अफ़ग़ान सुरक्षा बलों के सहयोग तक सिमट गई है.
मगर इसके बाद से अराजकता बढ़ने लगी और धीरे-धीरे तालिबान फिर से और इलाक़ों पर कब्ज़ा करता चला गया. बीते साल बीबीसी ने पाया था कि तालिबान 70 प्रतिशत अफ़ग़ानिस्तान में खुलकर सक्रिय था.
मगर 2018 में अमरीकी और तालिबान प्रतिनिधियों के बीच अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापित करने के मकसद से वार्ता शुरू हुई. सब कुछ सही दिशा में जाता दिख रहा था मगर आख़िर में सब ख़त्म हो गया.
ऐसी चर्चा है कि अमरीका और तालिबान के प्रतिनिधियों के बीच कई दौर की वार्ता के बाद समझौते के मसौदे पर सहमति बन गई और बस हस्ताक्षर होने बाक़ी थे.
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं कि समझौते के आखिरी दौर में चार शर्तें थीं जिन्हें लेकर दोनों पक्षों के बीच पहले से ही गतिरोध बना हुआ था.
वह बताते हैं, "पहली शर्त तो यह थी कि अमरीका और नैटो की सेनाएं पूरी तरह हट जाएंगी. दूसरी शर्त थी कि तालिबान गारंटी देगी कि वह अपने यहां इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) को शरण नहीं देगा. तीसरी शर्त थी कि अमरीका के हटते ही तालिबान अफ़ग़ान सरकार से वार्ता शुरू करेगा. और चौथी बात थी- अमरीका की चाहत कि अफ़ग़ानिस्तान में उसकी छोटी सी काउंटर टेररिज़्म यूनिट जिसका काम उन समूहों को रोकना रहे जो अमरीका की सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा कर सकते हैं.
तीसरे मुद्दे को लेकर अमरीका की पहले ही आलोचना हो रही थी कि उसने अफ़ग़ान सरकार को शामिल न करने की तालिबान की मांग को स्वीकार कर लिया था. फिर चौथी शर्त को लेकर भी चिंता जताई जा रही कि अगर अमरीका पूरी तरह हट गया तो यह उसके हित में नहीं होगा.
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान का ये भी मानना है कि अमरीका के सैन्य कमांडर नहीं चाहते कि वह पूरी तरह से अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकले.
हाल ही में सऊदी तेल कंपनी अरामको पर हुए ड्रोन हमले का ज़िक्र करते हुए वह कहते हैं, "अफ़ग़ानिस्तान में अमरीकी सैनिकों का मौजूद रहना और वहां उसका सैन्य ठिकाना होना रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है.
ईरान और सऊदी अरब के बीच तनाव बढ़ गया है और युद्ध तक की आशंका जताई जा रही है. अगर ऐसा हुआ तो अमरीका अपने सहयोगी सऊदी अरब की मदद के लिए आगे आएगा. तब अफ़ग़ानिस्तान में उसकी सेनाओं की मौजूदगी उसके लिए मददगार होगी.
ईरान और अफ़ग़ानिस्तान की सीमा आपस में लगती है. ऐसे में युद्ध की स्थिति में अमरीका अपने सैनिकों को पहले अफ़ग़ानिस्तान में उतारकर ईरान पर ज़मीन से कार्रवाई कर सकता है.
हवा और समंदर से हमले के अलावा उसके पास ज़मीन से हमला करने का फ़ायदा रहेगा.
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान बताते हैं, "अमरीका में जो ईरान पर नज़र रखने वाले अधिकारी हैं, वे नहीं चाहेंगे कि अमरीकी सैनिक हटें क्योंकि ईरान के साथ जंग की स्थिति में अफ़ग़ानिस्तान वही भूमिका निभा सकता है, जो इराक़ युद्ध के दौरान क़तर ने अदा की थी. ज़मीन से हमला करने का युद्ध में अपना अडवांटेज रहता है."
अमरीका के साथ वार्ता असफल होते की तालिबान ने हमले तेज़ कर दिए हैं. अफ़ग़ानिस्तान में 28 सितंबर को राष्ट्रपति चुनाव भी होने हैं और तालिबान ने कहा है कि वह इसमें बाधा डालेगा.
वरिष्ठ पत्रकार रहीमुल्ला यूसुफ़ज़ई कहते हैं कि आने वाले दिनों में अफ़ग़ानिस्तान में चल रहा संघर्ष और तेज हो सकता है.
वह कहते हैं, "40 साल से ज़्यादा समय से जंग से थक चुके अफ़ग़ानिस्तान को शांति चाहिए. बातचीत हो नहीं रही और ट्रंप ने कहा कि यह ख़त्म हो चुकी है. इसका मतलब है कि जंग में इज़ाफ़ा होगा. ट्रंप और माइक पोम्पियो ने कहा है कि उन्होंने हाल ही में तालिबान पर बड़े हमले किए हैं. बेशक तालिबान इन दावों को मान नहीं रहा लेकिन आने वाले समय में ख़ून-ख़राबा होगा क्योंकि अमरीका, अफ़ग़ान सरकार और तालिबान सभी हमले करेंगे."
यूसुफ़ज़ई कहते हैं कि इससे ऐसे हालात बन जाएंगे कि वार्ता हो नहीं सकेगी. फिर पहले की तरह जंग होगी और बेशुमार लोगों की मौत होगी.
रूस पहले भी तालिबान प्रतिनिधियों की मेज़बानी कर चुका है और अफ़ग़ानिस्तान में शांति को लेकर कुछ कार्यक्रमों का आयोजन भी करवाता रहा है.
लेकिन इस बार जब अमरीका-तालिबान वार्ता बेनतीजा खत्म हुई तो तालिबान प्रतिनिधियों ने तुरंत रूस का रुख़ कर लिया. तालिबान प्रतिनिधियों ने मॉस्को में अफग़ानिस्तान के लिए रूस के विशेष दूत ज़ामिर कबुलोव के साथ मुलाक़ात की.
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान का कहते हैं कि तालिबान एक रणनीति के तहत ऐसा कर रहा है ताकि अमरीका पर वार्ता का दबाव बनाया जाए.
हालांकि रूस ने इस मामले पर यही कहा है कि वार्ता फिर से शुरू होनी चाहिए. न तो उसने कोई विकल्प सुझाया है और न कोई क़दम उठाने की बात कही है.
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं कि तालिबान के रूस के पास जाने से उसकी थोड़ी इंटरनैशनल प्रोफ़ाइल बेशक बढ़ी है मगर अमरीका अफ़ग़ानिस्तान में रूस को बड़ी भूमिका अदा करने का मौक़ा नहीं देगा.
रूस और अमरीका ही अकेले देश नहीं हैं जो अफ़ग़ानिस्तान में दिलचस्पी रखते हैं. भारत और पाकिस्तान के भी वहां हित हैं. ईरान, चीन, सऊदी अरब और तुर्की का भी किसी न किसी तरह से अफ़ग़ानिस्तान में दख़ल है.
वरिष्ठ पत्रकार रहीमुल्ला यूसुफ़ज़ई कहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में अगर शांति स्थापित करनी है तो अन्य पक्षों को सकारात्मक भूमिका निभानी होगी और शांति वार्ता को प्रोत्साहित करना होगा.