ऐसी मशीनें बनाने वाली कंपनी अमरीका के प्रोफेसर कोडी फ्रीसेन ने बनाई है.
प्रोफेसर
कोडी अमरीका की एरिज़ोना स्टेट यूनिवर्सिटी में मैटीरियल साइंस के एसोसिएट
प्रोफ़ेसर हैं. उन्होंने ज़ीरो मास वाटर नाम से कंपनी बनाई है. वो सोलर
पैनल की तरह ही हाइड्रोपैनल की मदद से हवा से पानी इकट्ठा करते हैं.
कोडी
फ्रीसेन बताते हैं कि उनकी मशीन एरिज़ोना यूनिवर्सिटी में रिसर्च के दौरान
बनी थी. बचपन रेगिस्तान में बिताने की वजह से प्रोफ़ेसर कोडी को पानी
बचाने की अहमियत का शुरू से ही अंदाज़ा था.
वो कहते हैं कि आज हमें ऐसी मशीन चाहिए जो 15 फ़ीसद ह्यूमिडिटी में भी पानी को हवा से सोख सके.
फिलहाल कोडी ने ये रहस्य उजागर नहीं किया है कि उनकी मशीन कैसे काम करती
है. लेकिन वो कहते हैं कि इसमे लिथियम क्लोराइड और ऑर्गेनिक आयन इस्तेमाल
किए गए हैं.
सोलर पैनल की तरह इसमें भी बैटरियां लगी होती हैं, जो
सूरज की रोशनी से मशीन को चलाती हैं. इसमें एक केमिकल स्पंज लगा होता है,
जो हवा में मौजूद नमी को सोखता है.
कोडी की मशीन की लागत क़रीब 4 हज़ार डॉलर है. ये रोज़ाना 3.5 लीटर पानी
इकट्ठा कर सकती है. ये आम फ्रिज के मुक़ाबले बहुत कम, क़रीब 100 वाटर बिजली
खाती है.
इसके मुक़ाबले डब्ल्यूएफए मशीन 500 वाट बिजली की खपत करती
है. प्रोफेसर कोडी की कोशिश ये है कि हर साल बोतलबंद पानी ख़रीदने वाले
जितना पैसा पानी ख़रीदने में ख़र्च करते हैं, उससे कम में ये मशीन उनके काम
आने लगे.
क्योंकि बोतलबंद पानी से प्लास्टिक का प्रदूषण और दूसरे क़िस्म के प्रदूषण फैलते हैं.
अगर प्रोफ़ेसर कोडी की मशीन सोर्स को पांच साल इस्तेमाल किया जा सके, तो
एक लीटर पानी केवल 16 सेंट का पड़ेगा. इससे आधा लीटर की 3 लाख पानी की
बोतलों की ज़रूरत कम होगी. अभी सोर्स के ख़रीदार अमरीका और ऑस्ट्रेलिया के
ग्रामीण इलाक़ों में ज़्यादा हैं.
मशीन को मेक्सिको के स्कूलों, लेबनान के अनाथालय और पुएर्तो रिको के फायर स्टेशन को भी बेचा गया है.
लेकिन, हवा से पानी निकालने वाली एक और मशीन इथियोपिया, टोगो और हैती में प्रयोग की जा रही है. ये है 10 मीटर ऊंचा वार्का टावर.
बांस
की मदद से खड़ी की गई ये मीनार पॉलियस्टर का जाल लगती है. इसमें सुबह की
ओस क़ैद हो जाती है और रिस कर नीचे रखे टैंक में जमा होती है.
वार्का
टावर को इटली के आर्किटेक्ट आर्तुरो विटोरी ने डिज़ाइन किया है. उन्हें
इसका आइडिया नासा के लिए चांद पर ठिकाना डिज़ाइन करते वक़्त आया.
पहला वार्का टावर अफ्रीकी देश इथियोपिया में लगाया गया था. जब वहां कोहरे का सीज़न आया, तो इस मशीन से ख़ूब पानी इकट्ठा किया गया.
लेकिन जब बारिश या कोहरा नहीं था, तब भी हवा में नमी से पानी इकट्ठा हो रहा था.
इस
टावर को स्थानीय लोगों ने बांस और दूसरी चीज़ों से मिलाकर बनाया. इसमें
ताड़ की पत्तियां भी इस्तेमाल की गई थीं. अब हैती और टोगो में भी ये मशीन
लगाई जा रही है. विटोरी कहते हैं कि वार्का टावर में आस-पास मिलने वाली
चीज़ों से ही पानी को जमा किया जाता है.
रोलां वाल्ग्रीन कहते हैं कि
ऐसी बुनियादी तकनीक उन्हीं जगहों पर कारगर होगी, जहां पर हवा में नमी ख़ूब
होगी. लेकिन, दुनिया भर में पानी से महरूम 2.1 अरब लोगों तक साफ़ पानी
पहुंचाना है, तो वार्का टावर इसमें ज़्यादा मददगार नहीं होगा.
वहीं
विटोरी कहते हैं कि एक वार्का टावर से 50 लोगों को पानी मुहैया कराया जा
सकता है. इसे तैयार करने में क़रीब 3 हज़ार डॉलर का ख़र्च आता है. बड़ा
यानी 25 मीटर लंबा टावर बनाने का ख़र्च क़रीब 30 हज़ार डॉलर बैठेगा, जो 250
लोगों को पानी की सप्लाई कर सकता है. जब हवा में नमी नहीं होती, तो इस
टावर के नीचे स्थित टैंक में पानी नहीं जमा होता. सके मुक़ाबले केमिकल स्पंज वाले डेसिकेंट और रेफ्रिजरेटर की तरह काम
करने वाली मशीनों से लगातार पानी जमा होता रहता है. हां, इन्हें चलाने के
लिए बिजली की ज़रूरत पड़ेगी.
मशीनों से नुकसान होने की संभावना
वैसे
तकनीक की दुनिया लगातार बदलती रहती है. कौन जाने, आगे चलकर कोई नई तकनीक
ईजाद की जाए. ऐसी मशीन बनाने के लिए अंतरराष्ट्री एक्सप्राइज़ इनोवेशन
मुक़ाबले ने 17.5 लाख डॉलर का इनाम भी रखा है.
लोगों के ज़हन में ये सवाल भी है कि कहीं हवा से पानी सोखने से धरती के वाटर साइकिल पर तो असर नहीं पड़ेगा?
कहीं बादल बनने की प्रक्रिया पर तो असर नहीं होगा?
प्रोफ़ेसर
कोडी फ्रीसेन इन सवालों को हंसी में उड़ा देते हैं. वो कहते हैं कि अगर
धरती पर हर इंसान के पास हवा से पानी निकालने वाली मशीन हो, तो भी हम
ट्रैफिक के धुएं में मौजूद पूरा पानी नहीं निकाल सकेंगे.
भले ही हवा
से पानी सोखने के ये नुस्खे अभी अजीब लग रहे हों, मगर जिस तरह से ज़मीन के
भीतर मौजूद पानी का स्तर घट रहा है, उस स्थितिमें हमें बहुत जल्द पीने के
पानी के नए स्रोत की ज़रूरत होगी. ऐसे में डब्ल्यू एफ ए जैसी तकनीक में
उम्मीद नज़र आती है.
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